राहुल द्रविड़ भारतीय क्रिकेट के सबसे भरोसेमंद और शांत खिलाड़ियों में से एक रहे हैं। उनका अंतरराष्ट्रीय करियर 17 साल लंबा रहा, जिसमें उन्होंने टेस्ट और वनडे मिलाकर 24,000 से ज्यादा रन बनाए। उन्होंने कई बड़ी पारियां खेलीं और भारत को कई बार मुश्किल हालात से बाहर निकाला। लेकिन इतने सफल करियर के बाद भी उनके दिल में कुछ ऐसी यादें हैं जिन्हें वो दोबारा जीना चाहते हैं, सिर्फ इसलिए कि काश नतीजा अलग होता।
हाल ही में एक बातचीत के दौरान जब रविचंद्रन अश्विन ने द्रविड़ से पूछा कि अगर मौका मिले तो कौन सा मैच वो फिर से खेलना चाहेंगे, तो द्रविड़ ने दो मैचों का ज़िक्र किया – एक टेस्ट और एक वनडे। उन्होंने कहा, "I'd like to relive one that I lost. Everyone would like to relive one that they won." यानी कि वो वो मैच दोबारा खेलना चाहेंगे जो वो हारे थे, जबकि ज्यादातर लोग ऐसे मैच दोबारा खेलना चाहते हैं जो उन्होंने जीते हों।
पहला मैच उन्होंने बताया 1997 में वेस्ट इंडीज के खिलाफ बारबाडोस में खेला गया तीसरा टेस्ट था। ये उनकी पहली वेस्ट इंडीज यात्रा थी और भारत को जीत के लिए सिर्फ 120 रन बनाने थे। लेकिन भारत की टीम सिर्फ 80 रन पर ऑलआउट हो गई। द्रविड़ ने कहा, "The Test match in Barbados during my first trip in 1997, the last couple of pairs added 50-60 runs on a difficult pitch. We had to chase 120 and got bowled out for 80. The series was decided 1-0. We played five Test matches due to rain and all that. Had we won that match, we would have won the series." यानी अगर भारत वो मैच जीत लेता तो पूरी टेस्ट सीरीज अपने नाम कर सकता था, क्योंकि बाकी मैच बारिश की वजह से ड्रॉ हो गए थे। ये हार उनके लिए बहुत खलने वाली रही।
दूसरा मैच जो उनके दिल के बहुत करीब है, वो है 2003 वर्ल्ड कप का फाइनल, जो भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच साउथ अफ्रीका में खेला गया था। उस मैच में भारत ने टॉस जीतकर पहले गेंदबाज़ी करने का फैसला किया, क्योंकि मौसम में बादल थे और लग रहा था कि गेंदबाज़ों को मदद मिलेगी। लेकिन ऑस्ट्रेलिया ने ज़बरदस्त बल्लेबाज़ी की और बड़ा स्कोर खड़ा कर दिया। भारत को उस मैच में 125 रनों से हार झेलनी पड़ी। द्रविड़ ने कहा, "Maybe the 2003 (Cricket World Cup) final in South Africa. We won the toss and made the right decision because it was cloudy. Australia batted too well. I wish we could have changed that." उस फाइनल में हारना उनके लिए बहुत बड़ा झटका था, क्योंकि वो वर्ल्ड कप जीतने का सुनहरा मौका था। उनके साथ-साथ सौरव गांगुली और बाकी सीनियर खिलाड़ियों को भी ये मौका फिर नहीं मिला।
इस बातचीत में सबसे दिलचस्प बात ये रही कि द्रविड़ ने 2007 वर्ल्ड कप का कोई ज़िक्र नहीं किया, जिसमें वो कप्तान थे और भारत ग्रुप स्टेज में ही बाहर हो गया था। उस टूर्नामेंट को लेकर उन्होंने कोई अफसोस नहीं जताया। शायद उन्होंने उसे एक अनुभव के तौर पर लिया और आगे बढ़ गए।
राहुल द्रविड़ की ये बातें दिखाती हैं कि वो सिर्फ जीत के पीछे नहीं भागते, बल्कि उन्हें उन मौकों की भी परवाह होती है जहाँ थोड़ा और बेहतर किया जा सकता था। 1997 और 2003 के ये दो मैच उनके करियर में ऐसे मोड़ थे जिन्हें अगर बदला जा सकता, तो शायद कहानी कुछ और होती। लेकिन खेल की यही खूबसूरती है — हर हार एक सीख होती है और हर अफसोस एक याद।